Natasha

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राजा की रानी

आसपास बहुत से बंगाली खड़े हैं। उनमें से कुछ मुँह फिराकर हँस रहे हैं, और कुछ मुँह में कपड़ा देकर हँसी रोकने की कोशिश कर रहे हैं। मैं कुछ दूरी पर था, इसलिए पहले कुछ समझ न सका, किन्तु नजदीक आते ही सब बातें साफ-साफ सुन पड़ने लगीं। वह रोने के स्वर में बर्मी और देहाती बंगाली मिलाकर विलाप कर रहा है। यदि बंगाली में कुछ मार्जित करके लिखा जाय तो उस विलाप का यह रूप हो- “एक महीने बाद रंगपुर से तमाखू खरीद कर कैसे आ जाऊँगा, यह मैं ही जानता हूँ! जो री मेरी रत्नमणि! तुझे केला दिखाकर चला रे, ¹ केला दिखाकर चला!”

वह यह सब केवल हमारे समान कुछ अपरिचित बंगाली दर्शकों के हँसाने के लिए ही कह रहा था। पर, उसकी स्त्री बंगला नहीं समझती है, केवल रोने की आवाज से ही उस बेचारी की छाती फट रही है और किसी तरह वह हाथ उठाकर उसकी ऑंखें पोंछकर सांत्वना देने की चेष्टा कर रही है।

वह आदमी जोर-जोर से बिसूर-बिसूर कर रोता हुआ कहने लगा, “बड़ी मुश्किल से तूने पाँच सौ रुपये तमाखू खरीदने को दिए हैं- अब कुछ तेरे पास नहीं है-पेट तो भरा ही नहीं- इसी तरह यदि तेरा मकान भी बेच-बाचकर भले घर के लड़के की तरह घर जा सकता, तो समझता कि हाँ एक दाँव मारा! हाय, यह सब कुछ नहीं हुआ रे। कुछ नहीं हुआ!

आसपास के लोग हँसी को रोक रखने के कारण फूल-फूल उठने लगे; किन्तु जिसको लेकर इतनी हँसाई हो रही थी उसकी ऑंखें और कान दु:ख के ऑंसुओं से एकदम आच्छादित हो रहे थे। ऐसा जान पड़ने लगा कि कहीं वेदना के मारे मर न जाय!

खलासियों ने ऊपर से पुकार कर कहा, “बाबू, सीढ़ी उठाई जा रही है।”

वह आदमी गला छोड़कर सीढ़ी तक गया और फिर लौट आया। स्त्री के हाथ में एक पुराने समय के अच्छे नगवाली अंगूठी थी। इसी पर हाथ रखकर रोता हुआ बोला, “अरी, दे दे री, यह अंगूठी ही ले जाऊँ। इसके कम से कम दो-ढाई सौ रुपये दाम तो होंगे ही- इन्हीं को क्यों छोड़ूँ?”

स्त्री ने उसे चटपट खोलकर अपने प्रियतम की अंगुली में पहिना दिया। “जो मिला वही लाभ है।” कहकर वह आदमी रोता-रोता ही सीढ़ी पर चढ़ गया। जहाज जेटी छेड़कर धीरे-धीरे दूर सरकता जाने लगा और स्त्री मुख पर ऑंचल डालकर घुटने टेककर वहीं बैठ गयी। बहुत से लोग दाँत काढ़कर हँसते-हँसते चले गये। किसी ने कहा, “बाह रे लड़के!” किसी ने कहा, “बाह रे बहादुर छोकरे!' बहुत-से लोग यह कहते-कहते चले गये, 'कैसा तमाशा किया! हँसते-हँसते पेट दुखने लगा!' ऐसे-ऐसे न जाने कितने मन्तव्य प्रकट किये गये। केवल मैं ही अकेला सबके हँसी-तमाशे की चीज उस भोली स्त्री के अपरिसीम दु:ख का साक्षी बनकर गुमसुम खड़ा रह गया।

छोटी बहिन ऑंखें पोंछती हुई पास में खड़ी अपनी बहिन का हाथ खींच रही थी। मेरे पास में जाकर खड़े होते ही वह धीरे से बोली, “बाबूजी आए हैं बहिन, उठो।”

मुँह उठाकर उसने मेरी ओर देखा और साथ ही साथ उसका रुदन मानो बाँध तोड़कर फट पड़ा। मेरे पास सान्त्वना देने के लिए और था ही क्या! फिर भी, उस दिन मैं उसका साथ नहीं छोड़ सका। उसके पीछे-पीछे उसकी गाड़ी में जा बैठा। रास्ते-भर वह रो-रो करके यही बात कहती रही कि, “बाबूजी, आज मेरा मकान सूना हो गया। किस तरह मैं उसके भीतर पैर रक्खूँगी; एक माह के लिए तमाखू खरीदने गये हैं- यह एक मास मैं कैसे काटूँगी! विदेश में उन्हें न जाने कितनी तकलीफ उठानी होगी! मैंने उन्हें वहाँ क्यों जाने दिया! रंगून के बाजार की तमाखू से हमारा काम तो मजे से चल रहा था; तब फिर क्यों अधिक लाभ की आशा से मैंने उन्हें इतनी दूर भेजा! दु:ख के मारे छाती फटी जाती है। बाबूजी, अगली मेल से ही मैं उनके पास चली जाऊँगी।” इस तरह वह न जाने कितना और क्या-क्या कहती रही।

मैं एक बात का भी जवाब न दे सका, केवल अपना मुँह फिराकर खिड़की के बाहर देखता हुआ अपनी ऑंखों के ऑंसुओं को छुपाता रहा।

वह कहने लगी, “बाबूजी, तुम्हारी जात के लोग जितना प्यार-प्रेम कर सकते हैं, उतना हमारी जात के लोग नहीं कर सकते; तुम लोगों में जितनी दया माया है उतनी और किसी देश के लोगों में नहीं है।”

कुछ देर ठहरकर और दो-तीन दफे ऑंखें पोंछकर वह कहने लगी, “बाबू के प्यार में पड़कर जब मैं उनके साथ रहने लगी तब कितने ही लोगों ने मुझे भय दिखाकर रोका था; किन्तु, मैंने किसी की भी बात न सुनी। इस समय न जाने कितनी स्त्रियाँ मेरे सौभाग्य पर मन ही मन जलती हैं।”

चौरस्ते के नजदीक मैंने चाहा कि उतरकर अपने डेरे पर चला जाऊँ, किन्तु, वह व्याकुल होकर दोनों हाथों से गाड़ी का दरवाजा रोककर बोली, “ना बाबूजी, सो नहीं होगा। तुम्हें हमारे साथ चलकर एक प्याला चाय पीकर आना होगा; चलिए।”

मैं इनकार न कर सका। गाड़ी चलने लगी। उसने एकाएक पूछा, “अच्छा बाबूजी, रंगपुर कितनी दूर है? आप कभी वहां गये हैं? कैसी जगह है? बीमार होने पर वहाँ डॉक्टर तो मिल सकते हैं न?

बाहर की ओर देखते हुए मैंने उत्तर दिया, “हाँ, मिलते क्यों नहीं।”

एक उसास छोड़कर वह बोली, “फया (=ईश्वर) उन्हें भला रक्खें। उनके भाई भी साथ में है। वे बड़े सज्जन आदमी हैं, छोटे भाई को तो वे प्राणों से ज्यादा रक्खेंगे। तुम लोगों का शरीर तो जैसे प्रेमहीन बना है। मुझे कुछ सोच नहीं करना है, क्यों न बाबूजी?”

मैं चुपचाप बाहर की ओर देखता हुआ केवल यही सोचने लगा कि इस महापाप में मेरा खुद का हिस्सा कितना है? चाहे आलस्यवश हो- चाहे ऑंखों की शरम के मारे हो, और चाहे अक्ल मारी जाने के कारण हो, यह जो मैंने अपना मुँह बन्द किये रहकर इतना बड़ा अन्याय अनुष्ठित होते देखा और कुछ कहा नहीं, इसके अपराध से क्या मैं छुटकारा पाऊँगा? और यदि ऐसा ही है, तो फिर सिर ऊँचा करके मैं सीधा क्यों नहीं बैठ सकता? उसकी ऑंखों की ओर देखने का साहस क्यों नहीं कर सकता?

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